सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला: गवर्नर बिल रोक नहीं सकते, पर उनकी पावर पर अंकुश असंवैधानिक

नई दिल्ली

उच्चतम न्यायालय ने प्रेसिडेंशियल रफेरेंस पर फैसला सुनाते हुए कहा गवर्नर द्वारा बिलों को मंज़ूरी देने के लिए टाइमलाइन तय नहीं की जा सकती. "डीम्ड असेंट" का सिद्धांत संविधान की भावना और शक्तियों के बंटवारे के सिद्धांत के खिलाफ है. कोर्ट ने कहा चुनी हुई सरकार कैबिनेट को ड्राइवर की सीट पर होना चाहिए, ड्राइवर की सीट पर दो लोग नहीं हो सकते लेकिन गवर्नर का कोई सिर्फ़ औपचारिक रोल नहीं होता. गवर्नर, प्रेसिडेंट का खास रोल और असर होता है. गवर्नर के पास बिल रोकने और प्रोसेस को रोकने का कोई अधिकार नहीं है. वह मंज़ूरी दे सकता है, बिल को असेंबली में वापस भेज सकता है या प्रेसिडेंट को भेज सकता है.

बता दें प्रधान न्यायाधीश बी.आर. गवई, न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा और न्यायमूर्ति ए.एस. चंदुरकर की संविधान पीठ ने 10 दिनों तक दलीलें सुनने के बाद 11 सितंबर को फैसला सुरक्षित रख लिया था.

गवर्नर या प्रेसिडेंट काम अपने पास लेना न्याय के दायरे में नहीं आता

सुप्रीम कोर्ट ने कहा गवर्नर या प्रेसिडेंट काम अपने पास लेना न्याय के दायरे में नहीं आता. ज्यूडिशियल रिव्यू तभी होता है जब बिल एक्ट बन जाता है. तमिलनाडु फैसला  न्याय के दायरे में नहीं आता.  सबसे कठोर सिद्धांत यह है कि बिल के स्टेज पर कोई भी  मंज़ूरी को चुनौती दे सकता है.  हम यह भी साफ़ करते हैं कि जब बिल आर्टिकल 200 के तहत गवर्नर द्वारा रिज़र्व किया जाता है तो प्रेसिडेंट रिव्यू मांगने के लिए बाउंड नहीं हैं. अगर बाहरी विचार में, प्रेसिडेंट रिव्यू मांगना चाहते हैं, तो वह मांग सकते हैं,

हालांकि, जो सवाल उठता है वह यह है कि जब गवर्नर मंज़ूरी नहीं देते हैं तो क्या समाधान है. जबकि कार्रवाई की मेरिट्स पर विचार नहीं किया जा सकता. कोर्ट द्वारा जांच किए जाने पर, लंबे समय तक, अनिश्चित, बिना किसी कारण के कार्रवाई न करने पर सीमित न्यायिक जांच होगी.

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सरकार को ड्राइवर की सीट पर होना चाहिए: सुप्रीम कोर्ट

संविधान पीठ के निर्णय के मुताबिक चुनी हुई सरकार यानी कैबिनेट को ड्राइवर की सीट पर होना चाहिए. ड्राइवर की सीट पर दो लोग नहीं हो सकते. लेकिन गवर्नर का कोई सिर्फ औपचारिक रोल नहीं होता. गवर्नर, प्रेसिडेंट का खास रोल और असर होता है. गवर्नर के पास बिल रोकने और प्रोसेस को रोकने का कोई अधिकार नहीं है. वह मंजूरी दे सकता है. बिल को असेंबली में वापस भेज सकता है या प्रेसिडेंट को भेज सकता है.

 विधेयक के अधिनियम बनने के बाद ही न्यायिक समीक्षा लागू की जा सकती है: सुप्रीम कोर्ट

कोर्ट ने कहा कि विधेयक के अधिनियम बनने के बाद ही न्यायिक समीक्षा लागू की जा सकती है. गवर्नर की ओर से बिलों को मंजूरी देने के लिए टाइमलाइन तय नहीं की जा सकती. 'डीम्ड असेंट' का सिद्धांत संविधान की भावना और शक्तियों के बंटवारे के सिद्धांत के खिलाफ है.

 SC ने कहा- 'बिना वजह की अनिश्चित देरी न्यायिक जांच के दायरे में आ सकती है'

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में राज्यपाल के लिए समयसीमा तय करना संविधान की ओर से दी गई लचीलेपन की भावना के खिलाफ है. पीठ ने स्पष्ट किया कि राज्यपाल के पास केवल तीन संवैधानिक विकल्प हैं- बिल को मंजूरी देना, बिल को दोबारा विचार के लिए विधानसभा को लौटाना या उसे राष्ट्रपति के पास भेजना. राज्यपाल बिलों को अनिश्चितकाल तक रोककर विधायी प्रक्रिया को बाधित नहीं कर सकते. सुप्रीम कोर्ट ने यह भी माना कि न्यायपालिका कानून बनाने की प्रक्रिया में हस्तक्षेप नहीं कर सकती, लेकिन यह स्पष्ट किया कि- 'बिना वजह की अनिश्चित देरी न्यायिक जांच के दायरे में आ सकती है.'

जानें सुुप्रीम कोर्ट ने क्या-क्या कहा

राष्ट्रपति और राज्यपाल को अपने पास पेंडिंग बिल पर फैसला लेने के समयसीमा में बांधने के मसले पर राष्ट्रपति द्वारा भेजे गए प्रेसिडेंसियल रेफरेंस पर सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ का फैसला इस तरह है-

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1. SC ने कहा गवर्नर द्वारा बिलों को मंज़ूरी देने के लिए टाइमलाइन तय नहीं की जा सकती. 

2. "डीम्ड असेंट" का सिद्धांत संविधान की भावना और शक्तियों के बंटवारे के सिद्धांत के खिलाफ है.

3.SC ने कहा चुनी हुई सरकार- कैबिनेट को ड्राइवर की सीट पर होना चाहिए– ड्राइवर की सीट पर दो लोग नहीं हो सकते…लेकिन गवर्नर का कोई सिर्फ़ औपचारिक रोल नहीं होता.

4. आर्टिकल 142 प्रयोग कर सुप्रीम कोर्ट विधेयकों को मंजूरी नहीं दे सकता। यह राज्यपाल और राष्ट्रपति का अधिकार क्षेत्र में आता है.

5. SC ने कहा कि विधानसभा से पारित विधेयक को राज्यपाल अगर अपने पास रख लेता है, वह संघवाद के खिलाफ होगा. हमारी राय है कि राज्यपाल को विधेयक को दोबारा विचार के लिए लौटाना चाहिए.

6. सामान्य तौर पर राज्यपाल को मंत्रिमण्डल की सलाह पर काम करना होता है. लेकिन विवेकाधिकार से जुड़े मामले में वह खुद भी फैसला ले सकता है.

7. गवर्नर, प्रेसिडेंट का खास रोल और असर होता है

8. गवर्नर के पास बिल रोकने और प्रोसेस को रोकने का कोई अधिकार नहीं है। वह मंज़ूरी दे सकता है, बिल को असेंबली में वापस भेज सकता है या प्रेसिडेंट को भेज सकता है।

9. जब गवर्नर काम न करने का फैसला करते हैं, तो संवैधानिक  कोर्ट ज्यूडिशियल रिव्यू कर सकते हैं। कोर्ट मेरिट पर कुछ भी देखे बिना गवर्नर को काम करने का लिमिटेड निर्देश दे सकते हैं।

कोर्ट ने कहा- समयसीमा तय करना शक्तियों के विभाजन को कुचलना होगा

कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल विधेयकों को अनिश्चित काल तक रोक कर नहीं रख सकते, लेकिन समयसीमा तय करना शक्तियों के विभाजन को कुचलना होगा।

    कोर्ट ने कहा, "राज्यपाल अनंतकाल तक विधेयक रोककर नहीं बैठ सकते। समयसीमा लागू नहीं की जा सकती। संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 में लचीलापन रखा गया है। इसलिए किसी समयसीमा को राज्यपाल या राष्ट्रपति पर थोपना संविधान के ढांचे के खिलाफ है। यह शक्तियों के पृथक्करण के खिलाफ है।"
    

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1. 'डीम्ड असेंट' का सिद्धांत संविधान की भावना और शक्तियों के बंटवारे के सिद्धांत के खिलाफ है।

    2. चुनी हुई सरकार को ड्राइवर सीट पर होना चाहिए। इस सीट पर 2 लोग नहीं हो सकते। हालांकि, राज्यपाल की भूमिका केवल औपचारिक नहीं हो सकती।

    3. सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद 142 का इस्तेमाल कर विधेयकों को मंजूरी नहीं दे सकता। यह राज्यपाल और राष्ट्रपति के अधिकार क्षेत्र में आता है।
    4. राज्यपाल के पास विधेयक रोके रखने का कोई अधिकार नहीं है।
    

राज्यपाल की भूमिका को टेकअओवर नहीं कर सकते- कोर्ट

कोर्ट ने कहा, "जब राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह से बाध्य होता है तो हमारी राय से पहले दोनों पक्ष राज्यपाल के विवेक पर एक ही निर्णय पर भरोसा करते हैं। हमारा विकल्प यह है कि सामान्यतः राज्यपाल सहायता और सलाह से कार्य करते हैं और संविधान में प्रावधान है कि कुछ मामलों में वह विवेक का प्रयोग कर सकते हैं। कोर्ट राज्यपाल की भूमिका को टेकओवर नहीं कर सकती।"
    
क्या है मामला?

विवाद की शुरुआत तमिलनाडु की सरकार और राज्यपाल के बीच विधेयकों को पारित करने में देरी को लेकर हुई थी। तब 8 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राज्यपाल के पास कोई वीटो पावर नहीं है। कोर्ट ने ये भी कहा था कि राज्यपाल की ओर से भेजे गए विधेयक पर राष्ट्रपति को 3 महीने के भीतर फैसला लेना होगा।
    इसके बाद राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से 14 सवाल पूछे थे, जिस पर अब ये फैसला आया है।
    

 

 

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